Thursday, April 30, 2009

आज की पीढ़ी में!



फ़ैल रहा आक्रोश आज की पीढ़ी में!
बस हम हैं खामोश आज की पीढ़ी में!!!

नही समझता मनोदशा कोई उनकी?
सिर्फ़ यही है रोष आज की पीढ़ी में!!

कल की पीढी देती कोई दिशा नहीं!
है इसका अफ़सोस आज की पीढ़ी में!!

बिना कर्म के, गौरव की आकांक्षी है!
महज यही है दोष आज की पीढ़ी में!!

भ्रष्ट व्यवस्था हम क्षण भर में बदलेंगे!
कुछ ज्यादा है जोश आज की पीढ़ी में!!

त्रासदी-त्रासदी



मानसिक यंत्रणाओं के अनुवाद-सी!
ज़िन्दगी है महज त्रासदी-त्रासदी!!

मेरे "मैं" का विरोधी हुआ मन स्वतः!
बात क्या हो भला वाद-प्रतिवाद की!!

ढह गया सारा घर देखते-देखते!
नींव बाकी रही मात्र अवसाद की!!

जिस कथानक में हर भूमिका हो लचर!
क्या महत्ता वहाँ मात्र संवाद की!!

लग रही मन की हर भावना आज तो!
क़ैद उन्मुक्त पक्षी के उन्माद-सी!!

जिस्म घायल है!


जिस्म घायल है जान बाकी है!
गो अभी इम्तेहान बाकी है!!

मुल्क की सरहदों पे मिटने को!
मुल्क का ये जवान बाकी है!!

सारी धरती लहुलुहान हुई!
पर अभी आसमान बाकी है!!

मिट गए सारे रंग धुलने से!
बस अमन का निशान बाकी है!!

फ़ैसला दो न जल्दबाजी में!
गर हलफिया बयान बाकी है!!

इसको रौंदा कई वहशियों ने!
फ़िर भी हिन्दोस्तान बाकी है!!

दौरे गर्दिश है हर तरफ़ फ़िर भी!
कौम का स्वाभिमान बाकी है!!

हम न नगमों की तर्ज बदलेंगे!
कर ले जो भी जहान , बाकी है!!

सूर्य का था पुत्र लेकिन!



जब अहम् कवि का किसी की घात से आहत हुआ है!
मत समझिये ये ज़रा-सी बात से आहत हुआ है!!

दे गया युग को अमर कृति कौंच पक्षी का वो जोड़ा!
सामने तपसी के, जो आघात से आहत हुआ है!!

सूर्य का था पुत्र लेकिन सूतके घर में पला था!
था उसे मालूम वो हालात से आहत हुआ है!!

हाथ में था वज्र उसके, साथ सारे देवता थे!
इन्द्र अपने स्वर्ग के परिजातसे आहत हुआ है!!

वो अभी टूटा नही है फ़िर शह देगा समय को!
सामने जो इक ज़रा-सी मात से आहत हुआ है!!

Wednesday, April 29, 2009

आज के हालात में!

सहमी-सहमी है हवा, कैसी घुटन हैं रात में!
कैसे खुलकर साँस लें, दहशत भरे हालात में!!

हर नज़र बेचैन यों, मासूम इक बच्चा कोई!
चौंक जाए सोते-सोते, ज्यों अचानक रात में!!

ढह रही हैं अब निरर्थक मान्यताएं इस तरह!
जैसे गिरती छत पुरानी यकबयक बरसात में!!

लग रहे हैं कैक्टस से, यातनाओं के शिविर!
फ़िर भी ज़िंदा आदमी है, आज के हालत में!!

हर सृजन आक्रान्त, विषधर करा रहा है पाश को!
कूटनीतिक पैतरे हैं, घात में प्रतिघात में!!

रफ्ता-रफ्ता रास्ते ख़ुद!



ख़ुद-ब-ख़ुद आसान सारे मरहले हो जायेंगे!
इक शहादत से हजारों सिलसिले हो जायेंगे!!

दोस्तों मंजिल की दूरी से न घबराना कभी!
रफ्ता-रफ्ता रास्ते ख़ुद काफिले हो जायेंगे!!

सिर्फ़ धरती ही नहीं आकाश भी थर्रायेगा!
अपनी आवाजों के जिस दिन जलजले हो जायेंगे!!

वो जो देते हैं हमेशा धमकियाँ तूफ़ान की!
दूब की मानिंद उनके हौसले हो जायेंगे!!

सब निगल जाएगा लावा तोड़कर चट्टान को!
ये सुलगते ज़ख्म जिस दिन आबले हो जायेंगे!!

गर कदम से यूँ मिलाकर हम कदम चलते रहे!
मेरा दावा है की तय सब फासले हो जायेंगे!!

ये किसे मालूम था!

ये किसे मालूम था अमृत ज़हर हो जाएगा!
अजनबी मेरे लिए मेरा शहर हो जाएगा!!

आदमी को इस तरह बदलेगी पैसे की हवस!
राहजन मेरे सफर का राहबर हो जाएगा!!

उम्र भर जिसने मुहैया बेघरों को घर किए!
वक्त ये भी आएगा वो दरबदर हो जायेगा!!

दूसरों का घर जलाने की हवस जिसको रही!
उसका घर हर हाल लपटों की नज़र हो जाएगा!!

हाथ में पत्थर थमाने वाले लोगों देखना!
एक दिन सबका निशाना उनका घर हो जाएगा!!

जिनको गफलत है!

आपसे लोग जो मिले होंगे!
उनके चेहरे खिले-खिले होंगे!!

गम का नामोनिशां न हो जिसमें!
साथ बस ऐसे काफिले होंगे!!

ख़ुद को समझे जो नींव का पत्त्थर!
अपनी बुनियाद से हिले होंगे!!

हम न क्योंकर वहां तलक पहुंचे!
लोगों में बस यही गिले होंगे!!

साजिशें मुल्क बांटने की हैं!
आज के गाँव कल जिले होंगे!!

भावना व्यक्त हो निगाहों से!
इसलिए शब्द कम मिले होंगे!!

याचना क्योंकि तय है जब कल से!
यातनाओं के सिलसिले होंगे!!

जिनको गफलत है वो ग़ज़लगो हैं!
ओंठ उन लोगों के सिले होंगे!!

क्या करें?

वक्त के हाथों पिटे शतरंज के मोहरे हैं हम!
खेल जब तक हो न अपना अगला बेसबब हैं क्या करें!!

स्वतः उगते हैं किसी वटवृक्ष पर आश्रित नहीं!
इसलिए इस दौर में हम बेअदब हैं क्या करें!!

गैर के तप से मिले देवत्व, इस अरमान में!
इस दशा में वो अधर के बीच अब हैं क्या करें!!

था नहीं जिनके मुकाबिल और कोई भी गुलाब!
अब वही बैरंग, बेबस, खुश्क लब हैं क्या करें!!

कल तलक जिनके लिए नफरत हमारे दिल में थी!
उनका मन्दिर, उनकी पूजा, वो ही रब हैं क्या करें!!

गर मरा शब्द भी!

आपकी बात को आप से कह दिया!
पुण्य की मात को पाप से कह दिया!!

और जो भी बची शेष अभिव्यक्तियाँ!
उनको परिहास से श्राप से कह दिया!!

दाह की यातना का मुझे डर नहीं!
दग्ध मन ने अनल ताप से कह दिया!!

वेदना तो स्वतः श्राप बन जायेगी!
यदि व्यथित मन ने संताप से कह दिया!!

मोक्ष वो पा गया, जिसने अज्ञानश!
गर मरा शब्द भी जाप से कह दिया!!

छेद आकाश में!



जिनको भी हादसों ने पाला है!
उनका अंदाज़ ही निराला है!

एहमियत इसलिए अंधेरे की!
साथ उसके जुड़ा उजाला है!!

शोर इतना है बहरी बस्ती में!
सिर्फ़ गूंगो का बोल-बाला है!!

छेड़ आकाश में हुआ कैसे!
हमने सच को अभी उछाला है!!

इसमें मत रंगों-बू तलाशो तुम!
मुद्दतों पुरानी ये माला है!!

मेरा माजी था खुशनुमा कितना!
कौन तुमको बताने वाला है!!

और बातें तमाम बेमानी!
पेट में गर नहीं निवाला है!!

द्रौपदी के केश तो!



जो हवा के हैं बगूले, बुलबुले हैं!
ख़ुद को फौलादी दिखाने पर तुले हैं!!

कोठरी काजल की है जिनका ठिकाना!
कह रहे हैं दूध के वो तो धुले हैं!!

हैं हुए शिवी से बड़े दानी कोई क्या?
जो तुला पर मांस के बदले तुले हैं!!

राम को वनवास का आदेश देकर!
शोक में दशरथ उन्ही के क्यों घुले हैं?

पांडवों का बाहुबल किस काम का है?
द्रौपदी के केश तो अब भी खुले हैं!!

जान ले बापू!



कुछ लोग यहाँ जंगो अमन बेच रहे हैं!
कुछ लोग यहाँ चालो चमन बेच रहे हैं!!

मंचों पे तिजारत का चलन देखिये यारों
कुछ लोग तो कविता का कफ़न बेच रहे हैं!!

कुछ देखे, सुने, बोले बिना जान ले बापू!
बन्दर तो तेरे, तेरा चमन बेच रहे हैं!!

प्रति रक्षा के सौदों में खाते हैं दलाली!
ये लोग खुले आम वतन बेच रहे हैं!!


हर तरफ़ जो आजकल!

हर तरफ़ जो आजकल कोहरा घना है!
वो हमारी ही व्यवस्था ने जना है!!

कौन पहचाने किसे इस त्रासदी में?
आज हर चेहरा यहाँ कीचड़ सना है!

पक्ष और प्रतिपक्ष के दावे निरर्थक!
अहम् का ये युद्ध तो भीतर ठना है!!

द्वार पर क्योंकर लगाएं स्वागतम हो!
जब लिखा अन्दर यहाँ आना मना है!!

सिर्फ़ अपने आत्मबल की आस्था से!
मोम का पुतला भी फौलादी बना है!!

ठूंठ बन कर भी शरण देगा कई को!
राह में जो बूढे बरगद का तना है!!

क्यों हमेशा ही घना बजता रहा है!
आदमी इस दौर में थोथा चना है!!

सुभाष जयंती पर - नेता जी के नाम!



जो वतन के लिए लड़े होंगे!
अब न जाने कहाँ पड़े होंगे!!

कौन समझेगा है शहादत क्या!
सिर्फ़ खबरों में आंकड़े होंगे!!

चित्र सम्भव है चाँद लोगों के!
घर की दीवार पर जड़े होंगे!!

या की फटती हुई कमीजों पे!
चंद तमगे कहीं मढे होंगे!!

जिनका पेशा समय भुनाना है!
वो सभी लोग अब बड़े होंगे!!

जिनका सपना था मुल्क हो अपना!
वो असूलों पे ही अडे होंगे!!

देख कर देश की ये आज़ादी!
आप तो शर्म से गडे होंगे!!

न्याय की आँख से!



उनकी चाहत है फ़िर जाम उछाला जाए!
हमको डर है की न हाथों से निवाला जाए!!

अस्मिता देश की फ़िर दांव पे पांचाली सी!
युद्ध कुरुक्षेत्र का किस तरह से टाला जाए!!

न्याय की आँख से पट्टी न अगरचे उतरी!
दूर नज़रों से कहीं न उजाला जाए!!

उनको एहसास न क्यों दर्द का होगा यारों!
जिनके सीने में उतर शब्द का भाला जाए!!

आज गांधी की जगह राष्ट्र को वल्लभ चाहिए!
जिससे हर हाल में ये देश संभाला जाए!!

कोहरे में कैद सूरज!



हादसों पे हादसे होते रहे!
फ़िर भी हम ये ज़िन्दगी ढोते रहे!

किस तरह मिलती उन्हें अमराइयाँ!
जो बबूलों की फसल बोते रहे!!

कोहरे में कैद सूरज जब हुआ!
दोपहर तक लोग सब सोते रहे!!

यातना, हालात या कहिये नियति!
आप तो हल में हमें जोते रहे!!

देखकर झरनों में बहने की ललक!
बेसबब हम उम्र भर रोते रहे!!


इस मुल्क में जयचंद!



जो चंद लोग आज भी ईमानदार हैं!
वो भ्रष्ट राजनीति के शायद शिकार हैं!!

कुछ लोग कर रहे हैं दुरुपयोग कलम का!
इसका सबूत छप रहे ये इश्तेहार हैं!!

रंग कर दरो-दीवार छिपाना नहीं मुमकिन!
ये एक दो नहीं हजारों दरार हैं!!

बुनियाद का मजबूत बहुत होना है लाजिम!
कमजोर यहाँ सारी की सारी दीवार हैं!!

चेहरे तमाम होते हैं जिनसे थी बेनकाब!
क्योंकर सवाल उनको वही नागवार है!!

त्रेता के राम को भी न बख्शा अवाम ने!
तो आज के ये लोग सहज दरकिनार हैं!!

तुम शूर हो इस तरह समरभूमि न छोडो!
इस मुल्क में जयचंद अभी बेशुमार हैं!!

Tuesday, April 28, 2009

यातना अपमान भी!



अपनी जिद पर, वह निरर्थक ही अड़े हैं!
साथ बैसाखी का लेकर जो खड़े हैं!!

आंधियां उन के मुकाबिल क्यों लड़ेंगी!
दूब की मानिंद जो सहमे खड़े हैं!!

यातना, अपमान या अवहेलना हो!
बेअसर हैं, क्योंकि हम चिकने घड़े हैं!!

है उन्हीं के दम से, खुशबू इस चमन में!
उम्र भर खामोश, तनहा जो खड़े हैं!!

आज तक कोई नहीं यह जान पाया!
क्या थे कल तक, अब जो वह इतने बड़े हैं!!

जिनमें दमख़म था, कशिश थी, हौसला था!
वे मुरव्वत की सलीबों पर जड़े हैं!!

हाँ नए इस साल में!



टूटते इंसान से जज़्बात की बात न कर!
हो सके तो घात पर प्रतिघात की बातें न कर!!

हर तरफ़, कब्रों, जनाजों, अर्थियों का शोर है!
घर, ठिठोली, ब्याह की, बारात की बातें न कर!!

जिसके दम से है रवानी जिन्दगी के खेल में!
बेसबब तू उस लहू की बातें न कर!!

भीष्म सा आहत पड़ा है जो आज रणभूमि में!
नासमझ उससे तो अब शह मात की बातें न कर!!

थरथराते ठण्ड से कीचड़ में लिपटे ये बदन!
कह रहे तूफ़ान औ' बरसात की बातें न कर!!

इतनी दहशत है परिंदे तक शहर के मौन हैं!
इल्तजा है अब तो तू उत्पात की बातें न कर!!

वो हसीं लम्हे जो हमने साथ मिलकर थे जिए!
रख सजाकर दिल में उन लम्हात की बातें न कर!!

ख़ुद समझ मेरे ग़ज़ल औ' गीत के अंदाज़ को!
मुझसे माजी की और मेरे हालत की बातें न कर!!

देख वो किरणें सुनहरी ले सवेरा आ गया!
भूल जा वो काले साए, रात की बातें न कर!!

दब गए जो ज़ख्म उनको बेवजह यूँ मत कुरेद!
हाँ नए इस साल में सदमात की बातें न कर!!


कर्ण बन कर त्याग दे!



जब कभी परछाईं का कद, आपके कद से बड़ा हो!
आदमी को चाहिए जाकर अंधेरे में खड़ा हो!!

पान का बीड़ा सदा सम्मान का सूचक रहा है!
कर ग्रहण ये मान कर शायद ज़हर इसमें पड़ा हो!!

हार तो उसकी विजय से भी कहीं ज्यादा सुखद है!
जो प्रबलतम शत्रु से सम्मान की खातिर लड़ा हो!!

नाग के से पाश का आभास तो देगा सदा ही!
वो दुशाला जो अनादर से मिला, माणिक जड़ा हो!!

कर्ण बन कर त्याग दे रक्षा कवच कुंडल अलौकिक!
जब स्वयं ही इन्द्र बन याचक तेरे द्वारे खड़ा हो!!

सारे मज़हब समा सकें जिसमें!



ज़िन्दगी को खुली किताब रखो!
अपनी मुट्ठी में आफ़ताब रखो!!

गर ख़ुशी बे-हिसाब मिल जाये!
साथ में दर्द का हिसाब रखो!!

चाहिए अश्व पर नियंत्रण गर!
कस के पैरों तले रकाब रखो!!

गर विरोधी सभी निरुत्तर हो!
दोस्तों को भी लाजवाब रखो!!

जो हैं जंगो अमन के सौदागर!
इन दरिंदो को बेनकाब रखो!!

सारे मज़हब समां सकें जिसमें!
अपनी आँखों में ऐसे ख्वाब रखो!!

Monday, April 27, 2009

महज़ सुकरात का डर है!



अँधेरे को उजाले का, सुबह को रात का डर है!
जिन्होंने मूँद ली आँखें उन्हें किस बात का डर है!!

बहुत कमज़ोर है आधार, रिश्तों की इमारत का!
किसी दम ये न ढह जाए इसे बरसात का डर है!!

जो सत्ता के नशे में हर किसी को चूर दिखते हैं!
मगर उनको भी यारों अपनी शाह और मात का डर है!!

सदा सच बोलता है ये इसे जल्दी ज़हर दे दो!
हरेक युग में सियासत को महज़ सुकरात का डर है!!

बड़ी मुश्किल से अपना जिनसे हम दामन बचा पाए!
हमें तो यारों अपने सिर्फ़ उन हालात् का डर है!!

ग़ज़ल की परिभाषा

जिस्म की चोट से तो आँख सजल होती है;
और रूह जब ग़म से कराहे तो ग़ज़ल होती है!

Introduction

This blog would contain poems & ghazals written by my father: Mr. Manoj Shrivastava.
He is an engineer by profession & a poet by heart.
Currently his two books have been published:
  • महज़ सुकरात का डर है
  • जयघोष