Monday, April 27, 2009

महज़ सुकरात का डर है!



अँधेरे को उजाले का, सुबह को रात का डर है!
जिन्होंने मूँद ली आँखें उन्हें किस बात का डर है!!

बहुत कमज़ोर है आधार, रिश्तों की इमारत का!
किसी दम ये न ढह जाए इसे बरसात का डर है!!

जो सत्ता के नशे में हर किसी को चूर दिखते हैं!
मगर उनको भी यारों अपनी शाह और मात का डर है!!

सदा सच बोलता है ये इसे जल्दी ज़हर दे दो!
हरेक युग में सियासत को महज़ सुकरात का डर है!!

बड़ी मुश्किल से अपना जिनसे हम दामन बचा पाए!
हमें तो यारों अपने सिर्फ़ उन हालात् का डर है!!

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